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Saturday, 4 April 2020

जग-बीती


और फिर हुआ यूँ कि,
कैद होगया इंसान
बंद दरवाज़ों में
और जीने लगी वो कुदरत
जिसका घर उजाड़ हमने अपने मकान बनाये थे।

दूरियां बढ़ाते बढ़ाते तनहा होगया इंसान
और गुमशुदा थे जो पंछी,
बिछड़े अपनों से जाने कब से,
लौट आने लगे थे अपने ही घरो में।
जहाँ वो हर सुबह चहकना फिर से सीख रहे थे,
कुछ घबरा कुछ शरमा रहे थे
एक इंसान था जिसे
झरोखो से झांकना फिर से सीखना पढ़ रहा था।

कौन गरीब कौन अमीर इन इंसानो में,
सोचने लगे थे वो पंछी
जो आजकल हर इंसान को
बंद कमरों में अपना-अपना हाथ बटाते
बस देख ही रहे थे।

मानो समय कि काया कुछ यूँ पलटी,
कि चिड़ियाघर की जगह अब इंसान घर में कैद
और चिड़िया आसमान में
खुली सांस ले रही थी, उड़ रही थी, नाच-गा रही थी।
सखियों संग अपनी
तरह तरह के इंसान-घरो का निरिक्षण कर रही थी
कि देख ओ सखी -
ये इंसान ऐसे जीता है
और वो इंसान वैसे जीता है ।

वो वक़्त था,
न धर्म था, न मोह, न शक्ति, न राजनीति ।
ज़िन्दगी खुश थी आज फ़िर,
क्योंकि इंसान और कुदरत के बीच का संतुलन सामान कर
वो सूत्रधार बन आज फ़िर लिख रही थी - जग-बीती ।

11 comments:

  1. Aur likho Mani
    Bahut sunder likha h
    V Good

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    1. Ji bilkul. Thank you so much. ❤️🥰😘

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  2. शानदार ��

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  3. Love this poem! You've captured the essence of this whole lockdown phase into it perfectly. Keep writing :)

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